28/10/2020

ISAAL-E-SAWAB , FATIHA AUR ZIYARAT-E- QUBOOR KE SABOOT

siyam tija
SAWAL:
Ye teeje ka fateha kyon hota hai, aur is fatehe ke khaane pe kiska haq hai, kya isme rishtedaaron ko dawat dena jayez hai hazrat rehnumaai farmaayiye

          JAWAB
Teeja yani intqal ke teesre din maiyyat ke eesal e sawab ke liye quran khawni karna aur faqeero ko khana khilana wagairah ye sab kaam shar'an jaayez o mustahsan hai aur ye apne marhoomeen ko faaidah pahunchane ka bihtareen zarya bhi hai

 magar is khane ki dawat na ki jaye keh is moqa par dawat jaayez nahin

Aala hazrat azeemul barakat saiyyiduna imam ahmad raza fazil e barailvi رضى الله تعالى عنه irshad farmate hain

Maiyyat ke yahan jo log jama hote hain aur unki dawat ki jaati hai us khane ki to har tarah mumana't hai aur bagair dawat ke jumerato 40 ven 6 maahi barsi men jo bhaji ki tarah agniya ko baanta jaata hai oh bhi agarche be ma'na hai magar uska khana mana nahin bihtar ye hai keh gani na khaye aur faqeer ko to kuchh muzaiqah nahin keh wahi uske mustahiq hain
(Fatawa razviyyah jild 4 safah 177)

DOSRI JAGAJ IRSHAD FARMATE HAIN

Ahl e maiyyat ki taraf se khane ki ziyafat tayyar karni mana hai keh shara ne ziyafat khushi men rakhi hai na keh gami men aur ye bid'at e shanee'ah hai

(Fatawa razviyyah jild 4 safah 139)

Lihaza agar teeje ke khane ki dawat ki gayi to ye na jaayez hai aisi dawat men shirkat na jaayez aur agar dawat nahin di gayi bagair dawat ke khana tayyar kiya gaya eesaal e sawab ke liye to agar oh khana gani bhi kha le to gunahgaar na hoga magar gani ko bachna chahiye

Aur agar kisi buzurg ke teesre din ki ya salana fatiha wagairah ho yani unke name ki niyaz ki jaaye to oh khana ameer o gareeb sab ke liye khana jaayez hai

Aala hazrat azeemul barakat saiyyiduna imam ahmad raza fazil e barailvi رضى الله تعالى عنه irshad farmate hain

Niyaz e auliya e kiram ta'aam e maut nahin oh tabrruk hai faqeer o gani sab len

📚 (Fatawa razviyyah jild 4 safah 225 )





मज़ार पर फूल डालना*
*📖अल हदीस::* हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम का गुज़र दो क़ब्रो पर हुआ तो आपने फरमाया कि इन दोनों पर अज़ाब हो रहा है और किसी बड़े गुनाह की वजह से नहीं बल्कि मामूली गुनाह की वजह से,एक तो पेशाब की छींटों से नहीं बचता था और दूसरा चुगली करता था,फिर आपने एक तार शाख तोड़ी और आधी आधी करके दोनो क़ब्रों पर रख दी और फरमाया कि जब तक ये शाख तर रहेगी तस्बीह करती रहेगी जिससे कि मय्यत के अज़ाब में कमी होगी
*( 📚बुखारी,जिल्द 1,हदीस 218)*

तो जब तर शाख तस्बीह पढ़ती है तो फूल भी पढ़ेगा और जब इनकी बरक़त से अज़ाब में कमी हो सकती है तो एक मुसलमान के तिलावतो वज़ायफ से तो ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है और मज़ार पर यक़ीनन अज़ाब नहीं होता मगर फूलों की तस्बीह से साहिबे मज़ार का दिल ज़रूर बहलेगा।

*वल्लाहो तआला आलम*





मज़ारों का तवाफ़ करना 👈
🚦 मज़ारों का तवाफ़ (चक्कर) अगर ताज़ीम (बड़ाई ज़ाहिर करने) की नियत से किया जाये तो ना जाईज़ है, क्यूंकि तवाफ़ के साथ ताज़ीम सिर्फ़ काबा शरीफ़ के साथ ख़ास है, और मज़ार को चूमना भी अदब के ख़िलाफ़ है, आस पास की ऊंची लकड़ी या दोनों तरफ़ और ऊपर की चोखट को चूम सकते हैं ।

📖 *फ़तावा रज़विया: जिल्द 9, पेज 528*





फ़ातिहा में खाना पानीं सामने रखने का मसअला*
_इस बारे में दो किस्म के लोग पाए जाते हैं कुछ तो वह हैं। कि अगर खाना सामने रख कर सूरए फातिहा वगैरा आयाते कुर्आनिया पढ़ दी जायें तो उन्हें उस खाने से चिढ़ हो जाती है और यह उस खाने के दुश्मन हो जाते हैं और उसे हराम ख्याल करते हैं। यह वह लोग हैं जिनके दिलों में बीमारी है। तो खुदाए तआला ने उनकी बीमारी को और बढ़ा दिया। कसीर अहादीस और अक़वाले अइम्मा और मामूलाते बुजुर्गाने दीन से मुंह मोड़ कर अपनी चलाते और ख़्वाहम ख़्वाह मुसलमनो को मुशरिक और बिदअती बताते हैं।_

*दूसरे हमारे कुछ वह मुसलमान भाई हैं जो अपनी जिहालत और वहम परस्ती की बुनियाद पर यह समझते हैं कि जब खाना सामने न हो कुर्आन की तिलावत व ईसाले सवाब मना है।*

कुछ जगह देखा गया है मीलाद शरीफ़ पढ़ने के बाद इन्तिज़ार करते हैं कि मिठाई आ जाए तब तिलावत शुरू करें यहाँ तक कि मिठाई आने में अगर देर हो तो गिलास में पानी ला कर रखा जाता है कि उनके लिए उनके जाहिलाना ख्याल में फातिहा पढ़ना जाइज हो जाए कभी ऐसा होता है कि इमाम साहब आकर बैठ गए हैं और मुसल्ले पर बैठे इन्तज़ार कर रहे हैं अगर खाना आए तो कुर्आन पढ़ें यह सब वहम परस्तियां हैं। हकीकत यह है कि फातिहा में खाना सामने होना जरूरी नहीं अगर आयतें और सूरतें पढ़ कर खाना या शीरीनी बगैर सामने लाए यूही तकसीम कर दी जाए तब भी ईसाले सवाब हो जाएगा और फातिहा में कोई कमी नहीं आएगी।
*(सय्यिदी आलाहजरत मौलाना अहमद रजा खाँ बरेलवी)* फ़रमाते हैं "फातिहा व ईसाले सवाब के लिए खाने का सामने होना ज़रूरी नहीं।
 
📕 *(फ़तावा रजविया, जिल्द 4, सफ़हा 225)*

     और दूसरी जगह फरमाते हैं "अगर किसी शख्स का यह एतिकाद हो कि जब तक खाना सामने न किया जाए सवाब न पहुँचेगा तो यह गुमान उसका महज गलत है।"
 
📗 *(फतावा रजविया,जिल्द 4, सफ़हा 195)*
       
*_खुलासा यह कि खाने पीने की चीजें सामने रख कर फातिहा। पढ़ने में कोई हरज नहीं बल्कि हदीसों से उसकी असल साबित है और फातिहा में खाना सामने रखने को जरूरी ख्याल करना कि उसके बगैर फातिहा नहीं होगी यह भी इस्लाम में ज्यादती, वहमपरस्ती और ख़्याले ख़ाम है। जिसको मिटाना मुसलमानों पर जरूरी है_*

*हजरत मौलाना मुफ्ती मुहम्मद खलील खाँ साहब मारहरवी फरमाते हैं।*
        "तुम ने नियाज़, दुरूद व फातिहा में दिन या तारीख़ मुकर्ररा के बारे में यह समझ रखा है कि उन्हीं दिनों में सवाब मिलेगा आगे पीछे नहीं तो यह समझना हुक्मे शरई के ख़िलाफ़ है।
      यूंही फातिहा व ईसाले सवाब के लिए खाने का सामने होना कुछ जरूरी नहीं या *हजरते फ़ातिमा खातूने जन्नत रदीअल्लाहो ताला अनहा* की नियाज का खाना पर्दे में रखना और मर्दो को न खाने देना औरतों की जिहालते हैं वे सबूत और गढ़ी हुई बातें हैं मर्दो को चाहिए कि इन ख्यालात को मिटायें और औरतों को सही रास्ते और हुक्मे शरई पर चलायें।

📙 *(तौजीह व तशरीह फैसला हफ़्त मसअला, सफहा 142)*
📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा,55 56 57*




क्या औरत फ़ातिहा नही पढ़ सकती?*
*फातिहा व ईसाले सवाब जिस तरह मर्दो के लिए जाइज़ है उसी तरह बिला शक औरतों के लिए भी जाइज़ है। लेकिन बाज़ औरतें बिला वजह परेशान होती हैं और फातिहा के लिए बच्चों को इधर उधर दौड़ाती हैं। हालांकि वह खुद भी फातिहा पढ़ सकती हैं। कम अज़ कम अल्हम्दो शरीफ़ और कुल हुवल्लाह शरीफ़ अक्सर औरतों को याद होती हैं। इसको पढ़कर खुदाए तआला से दुआ करें कि या अल्लाह इसका सवाब और जो कुछ खाना या शीरीनी है उसको खिलाने और बाँटने का सवाब फलां फलां और फलाँ जिसको सवाब पहुँचाना हो, उसका नाम लेकर कहें उसकी रूह को अता फ़रमा दे। यह फातिहा हो गई और बिल्कुल दुरुस्त और सही होगी।*

_बाज़ औरतें और लड़कियाँ कुछ जाहिल मर्दों और कठमुल्लाओं से ज़्यादा पढ़ी लिखी और नेक पारसा होती हैं। ये अगर उन जाहिलों के बजाय खुद ही कुर्आन पढ़कर ईसाले सवाब करें तो बेहतर है।_

*कुछ औरतें किसी बुजुर्ग की फातिहा दिलाने के लिए खाना वगैरह कोने में रखकर थोड़ी देर में उठा लेती हैं और कहती हैं । कि उन्होंने अपनी फातिहा खुद ही पढ़ ली। ये सब बेकार की बातें हैं जो जहालत की पैदावार हैं। इन ख्वाम ख्वाह की बातों की बजाय उन्हें कुर्आन की जो भी आयत याद हो, उसको पढ़कर ईसाले सवाब कर दें तो यही बेहतर है और यह बाक़ाइदे फातिहा है।*

_हाँ इस बात का ख्याल रखें कि मर्द हो या औरत उतना ही कुर्आन पढ़े जितना सही याद हो और सही मख़ारिज से पढ़ें ग़लत पढ़ना हराम है और ग़लत पढ़ने का सवाब न मिलेगा और जब सवाब मिला ही नहीं तो फिर बख़्शा क्या जाएगा। आजकल इस मसअले से अवाम तो अवाम बाज़ ख़वास भी लापरवाही बरतते हैं।_

📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा, 60 61*





मज़ार पर चादर चढ़ाना कब जाइज़ है।?*
      अल्लाह तआला के नेक और खास बन्दे जिन्हें औलियाए किराम कहा जाता है। उनके इन्तिकाल के बाद उनकी मुकद्दस कब्रों पर चादर डाल देना जाएज है। इस चादर चढ़ाने में एक मसलिहत यह है कि इस तरह उनकी मुबारक कब्रों की पहचान हो जाती है कि यह किसी अल्लाह वाले की कब्र है और अल्लाह के। नेक बन्दों की इज्जत करना जिस तरह उनकी दुनयवी जिन्दगी में जरूरी है उनके विसाल के बाद भी उनका अदब व इहतिराम जरूरी है और मज़ारात पर चादर चढ़ाना भी अदब व इहतिराम है

*और दूसरों से अलग उनकी पहचान बनाना है जो लोग औलियाए किराम के मजारात पर चादर चढ़ाने को नाजाइज व गुनाह कहते हैं वह गलती पर हैं। लेकिन इस बारे में मसअला यह है कि एक चादर जो मजार पर पड़ी हो जब तक वह पुरानी और ख़राब न हो जाए दूसरी चादर न डाली जाए मगर आजकल अकसर जगह मजारों पर इसके ख़िलाफ़ हो रहा है। फटी पुरानी और ख़राब तो दूर की बात है मैली तक नहीं होने देते और दूसरी चादर डाल देते हैं। कुछ जगह तो दो चार मिनट भी चादर मज़ार पर नहीं रह पाती। इधर डाली और उधर उतरी यह गलत है और अहले सुन्नत के मजहब के ख़िलाफ़ है।*

_इस तरह चादर चढ़ाने के बजाए उस चादर की कीमत से मुहताजों व मिस्कीनों को खाना खिला दे या कपड़ा पहना दे या किसी गरीब मरीज का इलाज करा दे किसी जरूरतमन्द का काम चला दे किसी मस्जिद या मदरसे की जरूरत में खर्च कर दे, कहीं मस्जिद न हो तो वहाँ मस्जिद बनवा दे और इन सब कामों में उन्हीं बुर्जुग के ईसाले सवाब की नियत कर ले जिनके मजार पर चादर चढ़ाना थी तो यह उस चादर चढ़ाने से बेहतर है। हाँ अगर यह मालूम हो कि मजार पर चढ़ाई हुई। चादर उतरने के बाद गरीबों मिस्कीनों और मुहताजों के काम में आती है तो मजार पर चादर चढ़ाने में भी कुछ हर्ज नहीं क्यूंकि यह भी एक तरह का सदका और खैरात है। लेकिन आजकल शायद ही कोई ऐसा मजार होगा जिसकी चादरें गरीबों और मिस्कीनों के काम में आती हों बल्कि मुजावरीन और सज्जादगान उन पर कब्ज़ा कर लेते हैं और यह सब अकसर मालदार होते हैं_

      खुलासा यह है कि आजकल मज़ारात पर जब एक चादर पड़ी हो तो वहाँ दूसरी चादर चढ़ाने से बुजुर्गों के ईसाले सबाब के लिए सदका व खैरात करना गरीबों मिस्कीनों और मुहताजा के काम चलाना अच्छा है और यही मजहबे अहले सुन्नत और उलामाए अहले सुन्नत का फतवा है।

       *आलाहजरत इमाम अहले सुन्नत मौलाना अहमद रजा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं*

       'और जब चादर मौजूद हो और वह अभी पुरानी या खराब न हुई कि बदलने की हाजत हो तो चादर चढ़ाना फुजूल है। बल्कि जो दाम इसमें खर्च करें वली अल्लाह की रूहे मुबारक को ईसाले सवाब के लिए मोहताज को दें। हाँ जहाँ मअमूल हो कि चढ़ाई हुई चादर जब हाजत से जाएद हो खुद्दाम मसाकीन हाजतमन्द ले लेते हैं और इस नियत से डाले तो कोई बात नहीं कि यह भी सदका हो गया।
   
📘 *(अहकामे शरीअत हिस्सा अव्वल सफ़ा 72)*

   *Note- और अगर ऐसी जगह जहाँ पहले से चादर मौजूद हो और वह बोसीदा और ख़राब न हुई हो चादर चढ़ाने की मन्नत मानी हो तो उस मन्नत को पूरा करना जरूरी नहीं। और ऐसी मन्नत मानना भी नहीं चाहिए*

📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा, 65,66 67*







मज़ारात पर हाज़िरी का तरीक़ा*
*औरतों को तो मज़ारात पर जाने की इजाज़त नहीं मर्दो के लिए इजाजत है मगर वह भी चन्द उसूल के साथ :*

*_(1) पेशानी ज़मीन पर रखने को सज्दा कहते हैं यह अल्लाह तआला के अलावा किसी के लिए हलाल नहीं किसी बुजुर्ग को उसकी ज़िन्दगी में या मौत के बाद सज्दा करना हराम है। कुछ लोग मज़ारात पर नाक और पेशानी रगड़ते हैं यह बिल्कुल हराम है।_*

*_(2) मज़ारात का तवाफ़ करना यानी उसके गिर्द ख़ानाए काबा की तरह चक्कर लगाना भी नाजाइज़ है।_*

*_(3) अज़ रूए अदब कम से कम चार हाथ के फासले पर खड़ा होकर फातिहा पढ़े चूमना और छूना भी मुनासिब नहीं।_*
     
📙 *(अहकामे शरीअत सफ़हा 234)*

*(4) मज़ामीर के साथ कव्वाली सुनना हराम है तफ़सील के लिए देखिये।*
 
📗 *(फ़तावा रजविया, जिल्द 10, सफहा 54 से 56)*

_कुछ लोग समझते हैं कि सज्दा बगैर नियत और काबे की तरफ़ मुतवज्जेह हुए नहीं होता। यह भी जाहिलाना ख्याल है सज्दे में जिसकी ताज़ीम या इबादत की नियत होगी उसको सज्दा माना जाएगा। और जो सज्दा अल्लाह की इबादत की नियत से किया जाएगा वह अल्लाह तआला के लिए होगा और जो मज़ारात पर या किसी भी गैरे खुदा के सामने किया जाए वह उसी के लिए होगा। खुलासा यह कि ज़मीन पर किसी बन्दे के सामने सर रखना हराम है। यूंही बक़दरे रूकूअ झुकना भी मना है हाँ हाथ बाँध कर खड़ा होना जाइज़ है।_

📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा, 64*

*Note- आज कल देखा जाता है हमारे कुछ बाज़ लोग कम इल्मी के बजह से मजारात पर सज्दा करते है तवाफ़ करते नज़र आते जिनकी बजह से गैरो को हम पर तोहमत लगाने का मौक़ा मिल जाता है। इसलिए इस्लाम मे इल्म दीन शीखने को फ़र्ज कहा है। हमारे भोले भाले मुसलमान कम इल्म की वजह से खिलाफे शरअ काम करते नज़र आते है। मे उनसे यही कहूँगा इल्म हासिल करो इसके लिए चाहें तुम्हे कही भी जाना पढ़े।*






क़ब्रिस्तानों मे चिराग़ व मोमबत्ती जलाने और अगरबत्ती या लोबान सुलगाने का मसअला*
*_शबे बरात वगैरा के मौके पर कब्रिस्तानों में चिराग बत्तियां की जाती हैं। इस बारे में यह जान लेना जरूरी है कि बिल्कुल ख़ास कब्र के ऊपर चिराग व मोमबत्ती जलाना लोबान व अगरबत्ती सुलगाना मना है। कब्र से अलाहिदा किसी जगह एसा करना जाइज़ है जबकि इन चीजों से वहाँ आने जाने और कुर्आन शरीफ़ और फातिहा वगैरा पढ़ने वालों को या राहगीरों को नफ़ा पहुँचने की उम्मीद हो। यह ख्याल करना कि इस की रोशनी और खुशबू कब्र में जो दफ़न हैं उनको पहुंचेगी जहालत नादानी, नावाकिफ़ी और गलतफहमी है। दुनिया की रोशनि यां सजावटें और डेकोरेशन वरा जो कब्रिस्तानों में करते हैं और यह खुशबूएं मुर्दो को नहीं पहुँचती, मुर्दों को सिर्फ सवाब ही पहुँचता है। मुर्दा अगर जन्नती है तो उसके लिए जन्नत की खुशबू और रौशनी काफी है। और जहन्नमी के लिए कोई रोशनी है न ख़ुशबू_*

📗 *(सही मुस्लिम जिल्द 1, सफ़हा 76, फतावा रजविया, जिल्द 4, सफ़हा 141)*
📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा, 65*







औरतों की मजारात पर हाजिरी देना कैसा*_
_*📖सवाल - इस्लामी बहने कब्रिस्तान या मजाराते औलिया पर जा सकती है या नही..?*_

_*✍🏻जवाब - औरतो के लिए बाज उलमा मे जियारते कुबुर को जाईज बताया दुर्रे मुख्तार मे यही कौल इख्तियार किया*_

_*मगर अजीजो की कुबुर पर जाएगी तो जजअ व फजअ यानी रोना पीटना करेगी लिहाजा मना है*_

_*सालिहीन की कुबुर पर बरकत के लिए जाए तो बुढीयो के लिए हर्ज नही और जवानो के लिए मना*_

_*📕 दुर्रे मुख्तार जिल्द-3, सफा-178*_

_*अल्लामा मुफ्ती मुहम्मद अमजद अली आजमी अलैही रहमतुल्लाह फरमाते है :*_

_*और अस्लम यानी सलामती का रास्ता यह है कि औरते मुत्लकन मना की जाए कि अपनो की कुबुर की जियारत मे तो वह जजअ व फजअ यानी रोना पीटना है*_

_*और सालिहीन की कुबुर पर या ताजीम मे हद से गुजर जाएगी या बे अदबी करेगी तो औरतो मे यह दोनो बाते कसरत से पाई जाती है*_

_*📕 बहारे शरीअत, जिल्द अव्वल, सफा 849*_

_*मेरे आला हजरत अजीमुल बरकत मुजदद्दीदे दीनो मिल्लत ने औरतो को मजारात पर जाने की जाब जा बजा मुमा न अत फरमाई चुनान्चे*_

_*एक मकाम पर फरमाते है इमाम काजी रहमतूल्लाह तआला अलैही से इस्तिफ्ता सवाल हुआ कि*_

_*औरतो का मकबिर को जाना जाईज है या नही..!*_

_*तो आप ने फरमाया ऐसी जगह जवाजे व आदमे जवाज यानी जाईज व ना जाईज का नही पुछते यह पुछो कि*_

_*📍औरत पर कितनी लानत पडती है*_

_*जब घर से कुबुर की तरफ चलने का इरादा करती है अल्लाह तआला और फरिश्तो की लानत होती है*_

_*जब घर से बाहर निकलती है सब तरफो से शैतान उसे घेर लेते है*_

_*जब कब्र तक पहुचती है मय्यत की रूह उस पर लानत करती है जब तक वापस आती है अल्लाह तआला की लानत मे होती है.!*_

_*📕 फतावा रजविया, जिल्द 9, सफा 557*_

_*🕋अल्लाह तआला हमारे माँ बहनो को इन सब बातों पर अमल करने की तौफिक बख्शे..!*_
_*🌹आमीन सुम्मा आमीन*_






क़ब्रिस्तान जाने की सुन्नतें*_
_*हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि मैंने तुमको ज़ियारते क़ुबूर से मना किया था अब मैं तुमको इजाज़त देता हूं कि तुम क़ब्रों की ज़ियारत करो कि वो दुनिया से बे रग़बती और आख़िरत की याद दिलाती है*_

_*📕 मिश्कात शरीफ, सफह 154*_

_*हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि जो अपने वालिदैन में से किसी की ज़ियारत जुमा को करेगा तो उसकी मग़फ़िरत हो जायेगी और वो फर्माबरदार लिखा जाएगा जब क़ब्रिस्तान में जाये तो ये दुआ पढ़ें ''अस्सलामो अलैकुम या अहलल क़ुबूर यग़फिरुल्लाहो लना वलाकुम वअन्तुम सलाफोना वनाहनो बिल अस्रे यानि ऐ क़ब्र वालों अल्लाह की सलामती हो तुमपर अल्लाह तुम्हारी और हमारी मग्फ़िरत फरमाये और तुम हमसे पहले आ गये और हम तुम्हारे बाद आने वाले हैं जिसकी ज़ियारत को गया है तो दुनिया में उससे जितनी क़रीबी थी उतने का लिहाज़ रखे जब ज़ियारत को जाएं तो 2 रकअत नमाज़ घर से पढ़कर बख्शें और फिर जाएं कि इससे उसकी क़ब्र में नूर पैदा होगा इसको भी बहुत अज्र मिलेगा जितना क़ुरान सही मखरज से पढ़ सकता हो पढ़े, वरना 100 बार दुरूदे पाक शरीफ पढ़कर बख्शे*_

_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 16, सफ़ह 241-242*_

_*जनाजे को कंधा देना सुन्नते नबवी है और बेहतर है कि चारो तरफ़ से कन्धा देते वक़्त 10, 10 क़दम चले जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान तक औरतों का जाना नाजायज़ है जनाज़े को देखकर बाज़ लोग खड़े हो जाते हैं इसकी कोई अस्ल नहीं*_

_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 4, सफ़ह 143-145*_

_*क़ब्र पर बैठना, पैर रखना, उससे तक़िया लगाना और उन रास्तों पर चलना जो क़ब्रिस्तान में नए बनाए गयें हों हराम है क़ब्र में शजरह या अहद नामा रखना जायज़ है और मय्यत की पेशानी पर बिस्मिल्लाह शरीफ और सीने पर कलमा शरीफ लिखना बाइसे निजात है, मगर उंगली से लिखे स्याही वग़ैरह इस्तेमाल न करें मुर्दे को अपनी नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात व दीगर आमाल का सवाब भी बख्श सकता है और उसके नामए आमाल में कुछ भी कमी ना होगी, बल्कि उसे सबके मजमुये का सवाब मिलेगा मसलन इसने 10 मुर्दे को 10 नेकियां बख्शी तो सबको 10, 10 और इसको 100 नेकियां मिलेगी, युंही अगर तमाम उम्मत को बख्श दे तो सबकी गिनती के मजमुये के बराबर,*_

_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 4, सफ़ह 164-166*_







_सुन्नी और मज़ार_*
*_किसी की क़ब्र पर इमारत बना देना ही मज़ार कहलाता है, अल्लाह के मुक़द्दस बन्दों की मज़ार बनाना और उनसे मदद लेना जायज़ है, पढ़िये_*

*_मज़ार बनाना_*

*_1) तो बोले उनकी ग़ार पर इमारत बनाओ उनका रब उन्हें खूब जानता है वह बोले जो इस काम मे ग़ालिब रहे थे कसम है कि हम तो उन पर मस्जिद बनायेंगे_*

_*📕 पारा 15, सूरह कहफ, आयत 21*_

*_तफसीर_*

*_असहाबे कहफ 7 मर्द मोमिन हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की उम्मत के लोग थे बादशाह दक़्यानूस के ज़ुल्म से तंग आकर ये एक ग़ार मे छिप गये जहां ये 300 साल तक सोते रहे 300 साल के बाद जब ये सोकर उठे और खाने की तलाश मे बाहर निकले तो उनके पास पुराने सिक्के देखकर दुकानदारो ने उन्हे सिपाहियों को दे दिया उस वक़्त का बादशाह बैदरूस नेक और मोमिन था जब उस को ये खबर मिली तो वो उनके साथ ग़ार तक गया और बाकी तमाम लोगो से भी मिला असहाबे कहफ सबसे मिलकर फिर उसी ग़ार मे सो गये जहां वो आज तक सो रहें हैं हर साल दसवीं मुहर्रम को करवट बदलते हैं हज़रत इमाम मेंहदी रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के दौर मे उठेंगे और आपके साथ मिलकर जिहाद करेंगे बादशाह ने उसी ग़ार पर इमारत बनवाई और हर साल उसी दिन वहां तमाम लोगों को जाने का हुक्म दिया_*

_*📕 तफसीर खज़ाएनुल इर्फान, सफह 354*_

_*मज़ार पर जाना*_

*_2) हुज़ूर सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसललम इरशाद फरमाते हैं कि मैंने तुम लोगों को क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था अब मैं तुम को इजाज़त देता हूं कि क़ब्रों की ज़ियारत किया करो_*

_*📕 मुस्लिम, जिल्द 1, हदीस 2158*_

*_3) खुद हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैही वसल्लम हर साल शुहदाये उहद की क़ब्रो पर तशरीफ़ ले जाते थे और आपके बाद तमाम खुल्फा का भी यही अमल रहा_*

_*📕 शामी, जिल्द 1, सफह 604*_
_*📕 मदारेजुन नुबुव्वत, जिल्द 2, सफह 135*_

*_जब एक नबी अपने उम्मती की क़ब्र पर जा सकता है तो फिर एक उम्मती अपने नबी की या किसी वली की क़ब्र पर क्यों नहीं जा सकता_*

*_मज़ार पर चादर चढ़ाना_*

*_4) खुद हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम की मज़ारे अक़दस पर सुर्ख यानि लाल रंग की चादर डाली गई थी_*

_*📕 सही मुस्लिम, जिल्द 1, सफह 677*_

*_5) हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम एक जनाज़े मे शामिल हुए बाद नमाज़ को एक कपड़ा मांगा और उसकी क़ब्र पर डाल दिया_*

_*📕 तफसीरे क़ुर्बती, जिल्द 1, सफह 26*_

_*मज़ार पर फूल डालना*_

*_6) हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम का गुज़र दो क़ब्रो पर हुआ तो आपने फरमाया कि इन दोनों पर अज़ाब हो रहा है और किसी बड़े गुनाह की वजह से नहीं बल्कि मामूली गुनाह की वजह से, एक तो पेशाब की छींटों से नहीं बचता था और दूसरा चुगली करता था, फिर आपने एक तार शाख तोड़ी और आधी आधी करके दोनो क़ब्रों पर रख दी और फरमाया कि जब तक ये शाख तर रहेगी तस्बीह करती रहेगी जिससे कि मय्यत के अज़ाब में कमी होगी_*

_*📕 बुखारी, जिल्द 1, हदीस 218*_

*_तो जब तर शाख तस्बीह पढ़ती है तो फूल भी पढ़ेगा और जब इनकी बरक़त से अज़ाब में कमी हो सकती है तो एक मुसलमान के तिलावतो वज़ायफ से तो ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है और मज़ार पर यक़ीनन अज़ाब नहीं होता मगर फूलों की तस्बीह से साहिबे मज़ार का दिल ज़रूर बहलेगा_*

_*मुर्दो का सुनना*_

*_7) तो सालेह ने उनसे मुंह फेरा और कहा एै मेरी क़ौम बेशक मैंने तुम्हें अपने रब की रिसालत पहुंचा दी_*

_*📕 पारा 8, सुरह एराफ, आयात 79*_

*_तफसीर_*

*_हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम क़ौमे समूद की तरफ नबी बनाकर भेजे गए, क़ौमे समूद के कहने पर आपने अपना मोजज़ा दिखाया कि एक पहाड़ी से ऊंटनी ज़ाहिर हुई जिसने बाद में बच्चा भी जना, ये ऊंटनी तालाब का सारा पानी एक दिन खुद पीती दुसरे दिन पूरी क़ौम, जब क़ौमे समूद को ये मुसीबत बर्दाश्त न हुई तो उन्होंने इस ऊंटनी को क़त्ल कर दिया, तो आपने उनके लिए अज़ाब की बद्दुआ की जो कि क़ुबूल हुई और वो पूरी बस्ती ज़लज़ले से तहस नहस हो गयी, जब सारी क़ौम मर गई तो आप उस मुर्दा क़ौम से मुखातिब होकर अर्ज़ करने लगे जो कि ऊपर आयत में गुज़रा_*

_*📕 तफसीर सावी, जिल्द 2, सफह 73*_

*_8) जंगे बद्र के दिन हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम ने बद्र के मुर्दा कुफ्फारों का नाम लेकर उनसे ख़िताब किया, तो हज़रत उमर फारूक़े आज़म ने हैरत से अर्ज़ किया कि क्या हुज़ूर मुर्दा बेजान जिस्मों से मुखातिब हैं तो सरकार सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि 'एै उमर खुदा की कसम ज़िंदा लोग इनसे ज़्यादा मेरी बात को नहीं समझ सकते'_*

_*📕 बुखारी, जिल्द 1, सफह 183*_

*_सोचिये कि जब काफिरों के मुर्दो में अल्लाह ने सुनने की सलाहियत दे रखी है तो फिर अल्लाह के मुक़द्दस बन्दे क्यों हमारी आवाज़ों को नहीं सुन सकते_*

_*क़ब्र वालों का मदद करना*_

*_9) और अगर जब वो अपनी जानों पर ज़ुल्म करें तो ऐ महबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों फिर अल्लाह से माफी चाहें और रसूल उनकी शफाअत फरमायें तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पायेंगे_*

_*📕 पारा 5, सूरह निसा, आयत 64*_

*_हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैही वसल्लम की वफात के बाद एक आराबी आपकी मज़ार पर हाज़िर हुआ और रौज़ये अनवर की खाक़ अपने सर पर डाली और क़ुरान की यही आयत पढ़ी फिर बोला कि हुज़ूर मैने अपनी जान पर ज़ुल्म किया अब मै आपके सामने अपने गुनाह की माफी चाहता हूं हुज़ूर मेरी शफाअत कराइये तो रौज़ये अनवर से आवाज़ आती है कि जा तेरी बखशिश हो गई_*

_*📕 तफसीर खज़ाएनुल इर्फान, सफह 105*_

*_10) हज़रते इमाम शाफई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं जब भी मुझे कोई हाजत पेश आती है तो मैं हज़रते इमामे आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु की क़ब्र पर आता हूं, 2 रकत नफ्ल पढता हूं और रब की बारगाह में दुआ करता हूं तो मेरी हाजत बहुत जल्द पूरी हो जाती है_*

_*📕 रद्दुल मुख्तार, जिल्द 1, सफह 38*_

_*वहाबी और मज़ार*_

*_एक सवाल के जवाब पर मौलवी रशीद अहमद गंगोही लिखते हैं कि_*

*_11) क़ुबूरे औलिया पर जाना और उनसे फैज़ हासिल करना इसमें कुछ हर्ज़ नहीं_*

_*📕 फतावा रशीदिया, जिल्द 1, पेज 223*_

*_12) मौलाना रफ़ी उद्दीन के साथ हज़रत (थानवी) ने सरे हिन्द पहुंचकर शेख मुजद्दिद उल्फ सानी के मज़ार पर हाज़िरी दी_*

_*📕 हयाते अशरफ, सफह 25*_

*_थानवी ने लिखा_*

*_13) दस्तगिरी कीजिये मेरे नबी_*
     *_कशमकश में तुम ही हो मेरे वली_*

*_📕 नशरुत्तबीब फि ज़िक्रे नबीईल हबीब, सफह 164_*

*_मौलवी आरिफ सम्भली ने लिखा है कि_*

*_14) पस बुज़ुर्गो की अरवाह से मदद लेने के हम मुंकिर नहीं_*

*_📕 बरैली फितने का नया रूप, सफह 139_*

*_मौलवी हुसैन अहमद टांडवी लिखता है कि_*

*_15) हमें जो कुछ मिला इसी सिलसिलाए चिश्तिया से मिला, जिसका खाये उसी का गाये_*

_*📕 शेखुल इस्लाम नम्बर, सफह 13*_

*_इतना सब कुछ पढ़ने के बाद आज के दोगले वहाबियों को चाहिये कि सुन्नी से मुनाज़रा करना छोड़ें और जाकर चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जायें और अगर अब भी कुछ शर्म बाकी है तो फौरन अपने दोगले अक़ायद से तौबा करें और सच्चे दिल से मज़हबे अहले सुन्नत वल जमात यानि मसलके आलाहज़रत पर क़ायम हो जायें_*







मज़ार बनाना कैसा*_
_*🔘 क्या अल्लाह के मुक़द्दस बन्दों की मज़ार बनाना सही नहीं है*_

_*और क्या क़ब्र वालो से मदद लेना जायज़ नहीं है,*_

_*आइये क़ुरआन से पूछते हैं*_

_*1). तो बोले उनकी ग़ार पर इमारत बनाओ उनका रब उन्हें खूब जानता है वह बोले जो इस काम मे ग़ालिब रहे थे कसम है कि हम तो उन पर मस्जिद बनायेंगे*_

_*📕 पारा 15, सूरह कहफ़, आयत 21*_

_*तफ़सीर - असहाबे कहफ़ 7 मर्द मोमिन हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की उम्मत के लोग थे बादशाह दक़्यानूस के ज़ुल्म से तंग आकर ये एक ग़ार मे छिप गये जहां ये 300 साल तक सोते रहे 300 साल के बाद जब ये सोकर उठे और खाने की तलाश मे बाहर निकले तो उनके पास पुराने सिक्के देखकर दुकानदारो ने उन्हे सिपाहियों को दे दिया उस वक़्त का बादशाह बैदरूस नेक और मोमिन था जब उस को ये खबर मिली तो वो उनके साथ ग़ार तक गया और बाकी तमाम लोगो से भी मिला असहाबे कहफ़ सबसे मिलकर फ़िर उसी ग़ार मे सो गये जहां वो आज तक सो रहें हैं हर साल दसवीं मुहर्रम को करवट बदलते हैं हज़रत इमाम मेंहदी के दौर मे उठेंगे और आपके साथ मिलकर जिहाद करेंगे बादशाह ने उसी ग़ार पर इमारत बनवाई और हर साल उसी दिन वहां तमाम लोगों को जाने का हुक्म दिया*_

_*📕 तफ़सीर ख़ज़ाएनुल इरफान, पारा 15, ज़ेरे आयत*_

_*किसी की क़ब्र पर इमारत बना देना ही तो मज़ार कहलाता है और पढ़िये*_

_*2). आये तुम्हारे पास ताबूत जिसमे रब की तरफ़ से दिलों का चैन है और कुछ बची हुई चीज़ें हैं मुअज़्ज़्ज़ मूसा वा हारून के तर्के की कि उठाते लायेंगे फ़रिशते बेशक उस मे बड़ी निशानी है अगर ईमान रखते हो*_

_*📕 पारा 2, सूरह बक़र, आयत 248*_

_*तफ़सीर - बनी इसराईल हमेशा दुआ करते वक़्त व जंग मे जाते वक़्त ये ताबूत अपने आगे रखा करते थे जिससे वो हमेशा कामयाब होते उस ताबूत मे नबियों कि क़ुदरती तसवीरें उन के मकान के नकशे हज़रत मूसा व हारून का असा उन के कपड़े नालैन व इमामा शरीफ़ वगैरह थे*_

_*📕 तफ़सीर ख़ज़ाएनुल इरफान, पारा 2, ज़ेरे आयत*_

_*ज़रा ग़ौर करें कि बनी इसराईल अपने सामने वो ताबूत रखकर दुआ करते थे जिसमे कि नबियों की तसवीरें उनके मकान के नकशे उनका असा उन के कपड़े नालैन व इमामा शरीफ़ वगैरह रखे थे और अल्लाह उसे दिलों का चैन फ़रमा रहा है तो आज अगर हम किसी अल्लाह के वली की बारगाह मे दुआ करने चले जाये जहां खुद अल्लाह का बन्दा मौजूद है तो ये क्युं शिर्क हो जायेगा और पढ़िये*_

_*3). और अगर जब वो अपनी जानों पर ज़ुल्म करें तो ऐ महबूब तुम्हारे हुज़ुर हाज़िर हों फ़िर अल्लाह से माफ़ी चाहें और रसूल उनकी शफ़ाअत फ़रमायें तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पायेंगे*_

_*📕 पारा 5, सूरह निसा, आयत 64*_

_*इसकी तफ़सीर करने से पहले मैं आपसे एक सवाल पूछ्ता हूं ये बताइये कि क्या क़ुरान का हुक्म सिर्फ़ हुज़ूर के ज़माने तक ही था या क़यामत तक के लिये है क्या गुनाहगार सिर्फ़ हुज़ूर के ज़माने तक ही थे क्या अब गुनाहगार नहीं हैं तो अब अगर कोई गुनाह करेगा तो वो क्या करेगा अल्लाह फ़रमा रहा है कि माफ़ी के लिये हुज़ूर की बारगाह मे जाना होगा और वहाबी कहता है कि मज़ार पर जाना उनसे मदद मागना शिर्क है किसकी बात सुनी जाये अल्लाह की या इन खबीस वहाबियों की आगे पढ़िये जवाब मिल जायेगा इंशा अल्लाह*_

_*तफ़सीर - हुज़ूर सल्ल्ललाहो तआला अलैही वसल्लम की वफ़ात के बाद एक आराबी आपकी मज़ार पर हाज़िर हुआ और रौज़ये अनवर की खाक़ अपने सर पर डाली और क़ुरान की वो आयत पढ़ी फ़िर बोला कि हुज़ूर मैने अपनी जान पर ज़ुल्म किया अब मै आपके सामने अपने गुनाह की माफ़ी चाहता हूं हुज़ूर मेरी शफ़ाअत कराइये तो रौज़ये अनवर से आवाज़ आती है कि जा तेरी बखशिश हो गई,*_

_*📕 तफ़सीर ख़ज़ाएनुल इरफान, पारा 5, ज़ेरे आयत*_

_*अब देखिये कितने मसले हल हुए*_

_*! सालेहीन से बाद वफ़ात भी मदद लेना जायज़ है*_
_*! उन की मज़ार पर हाजत के लिये जाना जायज़ है*_
_*! उन्हे लफ़्ज़ 'या' से निदा करना भी जायज़ है*_
_*! और बेशक़ वो मदद भी फ़रमाते है*_

_*मगर यहां पर एक सवाल उठता है कि बहुत सारे ऐसे मुसलमान है कि जो ना तो मदीना शरीफ़ गये हैं और ना जा सकते हैं तो क्या उनकी बखशिश ना होगी इस के जवाब मे हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अहमद यार खान नईमी रहमतुल्लाह तआला अलैहि तफ़सीरे नईमी में इसी आयत के मातहत फरमाते हैं कि जिसकी इसतेताअत रौज़ये अनवर तक जाने की ना हो तो वो तसव्वुर मे मदीना चला जाये अपने किये पर शरमिंदा हो और युं अर्ज़ करे असअलोका शफ़ाअता या रसूल अल्लाह सल्ल्ललाहो तआला अलैही वसल्लम ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल्ललाहो तआला अलैही वसल्लम हमारी शफ़ाअत फ़रमाइये तो इंशा अल्लाह उसकी बखशिश हो जायेगी*_

_*और रही बात क़ब्रो की ज़ियारत की तो खुद हुज़ूर सल्ल्ललाहो तआला अलैही वसल्लम हर साल शुहदाये उहद की क़ब्रो पर तशरीफ़ ले जाते थे और आपके बाद तमाम खुल्फ़ा का भी यही अमल रहा,*_

_*📕 शामी, जिल्द 1, सफ़ह 604, मदारेजुन नुबुव्वत, जिल्द 2, सफ़ह 135*_

_*जब एक नबी अपने उम्मती कि क़ब्र पर जा सकता है तो फ़िर एक उम्मती अपने नबी की या किसी वली की क़ब्र पर क्युं नही जा सकता..!*_






Mazarat Per Phol Dalna Jayaz Hai - Deobandi Fatwa*

🌺 *مزارات پر پھول ڈالنا جائز ہے - دیوبندی فتوی*

🌸 *Deokhani Mazhab Ke Mufti Mohammad Riwzan Mazarat Per Phol Dalne Ke Taluk Se Likhta Hai:*

💐 *“Agar Koi Qabr Per Taza Phol Ya Phol Ki Pattiyan Dale Tu Us per Nakir Munasib Malum Nahi Hoti Kyun Ke Ye ijtehadi Wa ikhtelafi Masla Hai Jis Per Nakir Munasib Nahi Howa Karti”*

📕 *Mahnama Al Tableegh Oct 2019 Page 79*

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